Sunday, December 20, 2009

जिंदगी

 मरना तो मैं चाहता ही नहीं, 

मगर जिन्दा भी कहाँ हूँ


जिंदगी ढूँढता हूँ बस,
मुर्दों के शहर में ........

अपने ईमान को बेचा है बस,
दो वक्त की रोटी के लिए

अब सच को ढूँढता हूँ मैं,
झुन्ठो के शहर में.......


दौलत को चाहा है सदा,
पैसों से मुहब्बत की है

अब प्यार ढूँढता हूँ इस,
बेगाने शाहर में..........

सन्देश मैं देने चला था,
अमन का हर हाल में

सुख चैन ढूँढता हूँ अब,
दहशत के शहर में........

इंसानियत की राह में,
इंसानियत मिल सकी

इंसान ढूँढता हूँ अब,
हैवान - - शहर में......

सोचा था मैं इंसान बन,
इंसानियत से जी सकूँ

पर खुद को ढूँढता हूँ अब,
सुनसान शहर में..........

7 comments:

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी टिप्पणियां दें

कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लीजिये
वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:
डैशबोर्ड>सेटिंग्स>कमेन्टस>Show word verification for comments?>
इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..कितना सरल है न हटाना
और उतना ही मुश्किल-इसे भरना!! यकीन मानिये

वन्दना अवस्थी दुबे said...

स्वागत है.

dweepanter said...

बहुत ही सुंदर रचना है। ब्लाग जगत में द्वीपांतर परिवार आपका स्वागत करता है।
pls visit.......
www.dweepanter.blogspot.com

shama said...

सोचा था मैं इंसान बन,
इंसानियत से जी सकूँ.
पर खुद को ढूँढता हूँ अब,
सुनसान शहर में.

Dard bharee kavita...bahut sundar!

Ashok Sharma said...

Bahut bahut dhanyawad aap sabhi ka

Anonymous said...

Very nice sir.

G.N.SHAW said...

www.gorakhnathbalaji.blogspot.com

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