Thursday, October 28, 2010

(****इंसानियत****)

ये दुनिया बड़ी ज़ालिम, मज़हब नहीं समझती,
उन्माद की फिजां को, मज़हब का नाम देती|
पैदा हमें किया है, ईश्वर ने सिर्फ इंशां,
ये रंग भर बदलकर, मज़हब में बाँट देती|
'मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना,
एक वक्त में सुना था, मैंने भी ये तराना|
पर आज क्या हुआ है, दुनिया का वो फ़साना,
उन्मत्त हो गया है, मज़हब का हर दिवाना|
इंसान बनके आया, था मैं भी इस जहाँ में,
हिन्दू को मिल गया तो, हिन्दू बना दिया है|
संसार ने सिखाया, दुनिया में भेद करना,
इंसानियत का दुश्मन, मुझको बना दिया है|
आया था इस जहां में, तन-मन था स्वेत गंगा,
दुनिया ने हाथ रखकर, मैला बना दिया है|
इंसानियत की हद को, मज़हब में बाँट डाला,
इंसान को ह़ी उसका, दुश्मन बना दिया है|
मज़हब की डोर तोड़ो, इस भेद को मिटा दो,
होली दिवाली क्रिसमस, को ईद तुम मना लो|
हम सब हैं भाई-भाई, दिल से गले लगा लो,
नफरत की इस फिजां को, इंसानियत बना दो|

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