Sunday, January 17, 2010

बढ़ती-संख्या

आज जहाँ के लोगों की, कैसी फितरत हो गयी है!
मानव की बढती संख्या, मानवता निगल गयी है।।
भाई-भाई के बीच आज, देखो क्या रार ठनी है,
पिता-पुत्र में खूब आज, हो जाती तना-तनी है।
रिश्तों में कड़वाहट की अब, नहीं कमी रह गयी है॥
मानव की बढ़ती.........................
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पैसों के लालच में आज, शिक्षा व्यापार बनी है,
शिष्यों में गुरुवर के प्रति, आदर का भाव नहीं है।

गुरु-शिष्य की परिभाषा, बिलकुल ही बदल गयी है॥

मानव की बढ़ती............
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इस देश के रक्षक ही भक्षक का, रूप धरे बैठे हैं,
मौका ज्यों ही मिला, उनहोंने खूब माल ऐंठे हैं।
ताबूतों को भी खा गए, अब कसर कहाँ रह गयी है॥
मानव की बढ़ती.........................
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मानव में मानव के प्रति, सेवा का भाव नहीं है,
मौंका बस मिल जाए उसे, फिर कुछ परवाह नहीं है।

खुद का तो खा रहे नज़र, औरों पर लगी हुयी है॥
मानव की बढ़ती.........................4
इस युग का मानव देखो, निज दुःख से दुखी नहीं है ,
औरो को सुख में देखे, तो होता खूब दुखी है।
कैसे किसको दुःख दें ये बात, हर दिल में बसी हुयी है ॥
मानव की बढ़ती.........................
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वर्तमान का यह मानव, अभिमान अधीन हुआ है,
मानव ही मानव के लिए , कितना संगीन हुआ है।

इस दुनिया में जीने की चाहत,अब बिलकुल नहीं रह गयी है॥
मानव की बढ़ती.........................
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