काश की हर इंसान, कर्म को धर्म समझकर करता।
फिर क्यों मेरा देश आज, इस दावानल में जलता॥
रखवाला रक्षा करता यदि, रक्षक धर्म निभाता।
फिर क्यों ये आतंकवाद का, ग्रहण देश को लगता॥
यदि क़ानून बनाकर रखता, सबल-निबल में समता।
तो फिर क्यों मानवता रोती, सुजन दुष्ट से डरता॥
गर भ्रष्टाचार नहीं होता, कोई नहीं भूख से मरता।
दुर्बलता और लाचारी, फिर क्यों सहती बर्बरता॥
मानवता की परिभाषा, यदि मानव-वंश समझता।
भाषा, जाति, प्रान्त-वादों के चक्कर में क्यों पड़ता॥
स्त्री से ही पुरुष-पूर्णता, का यदि मर्म समझता।
फिर दहेज़ की ज्वाला में, क्यों बेटी का तन जलता॥
समय अभी भी गया नहीं है, फ़र्ज़ तुम्हारा बनता।
अच्छे कर्मों की कोशिश में, मिलती सहज सफलता॥
5 comments:
बेहतरीन। बधाई।
What a great resource!
SAMAY ABHI BHI GAYA NAHI HAI.....
BAHUT SUNDAR SANDESH KE SATH SARTAH PRAYAS.
BAHUT KHOON ASHOK JI
Really a true thought put! Bahut acchi lagi ye kavita!
Wah Wah ! Bahut Khub ...
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